निष्फल प्रेम नामक रचना को शेक्सपियर ने कॉमेडी (सुखान्त) नाटक के रूप में लिखा था। इसका कारण था कि इसमें व्यंग्य और हास्य की प्रधानता है, किन्तु वैसे यह सुखान्त नाटक नहीं है। यह तो गीतात्मक फन्तासिया माना गया है। इस नाटक का रचनाकाल सन्देह से पूर्ण है। 1588 से 1596 के बीच यह किसी समय लिखा गया, किन्तु अपनी शैली के दृष्टिकोण के आधार पर यह शेक्सपियर की एक प्रारम्भिक रचना है। इसमें रीतिकाव्य की भाँति शब्द- चमत्कार इतना अधिक है कि भावपक्ष के दृष्टिकोण से यह एक बहुत ही साधारण नाटक है। इसमें मजा़क से अधिक व्यंग्य है और अन्त में हमें एक प्रकार का नीतिपरक परिणाम प्राप्त होता है, किन्तु पात्र कोई भी हाथ नहीं आता। जिस उदात्त भावगरिमा का नाम शेक्सपियर है, वह तो यहाँ नहीं है, किन्तु एक बात अवश्य यहाँ भी है कि स्त्री और पुरुष के पारस्परिक सम्बन्धों की समानता पर यहाँ लेखक ने ज़ोर दिया है। इसलिए यह नाटक अपना महत्त्व रखता है। शेक्सपियर ने कल्पनालोक को व्यापक प्रसार देने की चेष्टा की है, किन्तु वह उसमें सफल नहीं हो सका है, क्योंकि उसने जिस शैली को पकड़ा है, वह बहुत पैनी नहीं है, न गहरी। ‘एक स्वप्न’ में उसने जो सौन्दर्य दिया है, वह यहाँ नहीं है, न है यहाँ वह सफल प्रकृति-चित्रण ही, जो हमें जैसा तुम चाहो में मिल जाता है।
यहाँ कुछ ऐसी बातें हैं जिनका अर्थ हमारे समाज में अपना कोई महत्त्व नहीं रखता, जैसे हमारे यहाँ तो भारतीय परम्परा में ‘सींग’ का महत्त्व नहीं, परन्तु यूरोप में व्यभिचारिणी स्त्री के सिर पर सींग होना एक प्रचलित मज़ाक माना जाता था। और इस नाटक में इस बात का आवश्यकता से अधिक उल्लेख है। पाश्चात्य संगीत के क्षेत्र से भी भारतीय पाठक का परिचय नहीं है। इसलिए ही जहाँ तक वर्णन का विषय है, वह बहुत उत्कृष्ट कोटि का नहीं हुआ है। फिर भी मध्यकाल को देखते हुए कवि ने समाज के उन लोगों पर गहरी चोट की है, जो विलास में डूबे रहकर भी विद्वत्ता का ढोंग करते हुए दार्शनिक बनते थे। पाण्डित्य पर तो शेक्सपियर ने बहुत ही कड़ा हमला किया है, और उनकी शास्त्रीयता का खोखलापन दिखाया है। नारी के प्रति शेक्सपियर की दृष्टि यहाँ काफी सन्तुलित है, और उसने स्त्री के आत्मसम्मान की रक्षा की है। हम कह सकते हैं कि शेक्सपियर ने अपनी रचनाओं में अपने को अपने पात्रों के माध्यम से ही व्यक्त किया है।
किन्तु जब शेक्सपियर ने यह नाटक लिखा था तब चातुर्य का प्राबल्य था। इस दृष्टि से देखा जाए कि शेक्सपियर ‘यूनिवर्सिटी विट’ नहीं था, तब तो भाषा पर उसके अगाध पाण्डित्य को देखकर आश्चर्य होता है, परन्तु वह जितना महान कलाकार था, उसको देखते हुए खेद होता है कि परम्परा में बँधकर उसने भले ही समसामयिक प्रतिद्वन्द्वियों या पुरानी रुचि के दर्शकों को अपने से प्रभावित कर लिया हो, परन्तु विश्व-साहित्य की दृष्टि से वह यहाँ आ नहीं सका है।
गीतों से भी कोमल भावना और संवेदना के स्थान पर बाह्य चित्रण अधिक है और हिन्दी में उनका हमारी भाषा के भीतर नियोजन ठीक नहीं बैठता। फिर भी हमने उसकी आत्मा को प्रतिबिम्बित करने की चेष्टा की है।
इस नाटक में दरबारीपन बहुत है। तत्कालीन घटनाओं के प्रति इसमें व्यंग्य भी है, क्योंकि जिन चार व्यक्तियों का इसमें चित्रण है, वैसे ही व्यक्ति तब उल्लेखनीय भी थे। नेवैरे, बैरोने, ड्यूमेन, लौंगेविले के रूप में नेवैरे का हैनरी, मार्शल डिबिरौन, डकडि लौंगेबिले और डक ड्यूमेन ही सम्भवतः वर्णित हैं, क्योंकि वे लोग उस समय यशःप्राप्त थे। इसी प्रकार अन्य पात्र भी हैं।
सम्भवतः यह शेक्सपियर की एक मौलिक रचना है, क्योंकि इसका कोई स्रोत नहीं मिला है।
इस नाटक का अनुवाद करना किसी हिन्दी के रीतिकालीन कवि की रचना का अनुवाद करने से भी अधिक कठिन कार्य प्रमाणित हुआ। इसमें मानवीय सार्वभौम भावपक्ष तो कम है, उल्टे लैटिन और अंग्रेज़ी का शब्द-चातुर्य ही नहीं, स्थानीय रीति-रिवाज और सन्दर्भ भी इतने संश्लिष्ट हैं कि अनुवाद में हिन्दी के पाठक को रस आना कठिन है। हमने फिर भी बड़े ही श्रम से उसका निर्वाह करने की चेष्टा की है, और जहाँ असम्भव-सा लगा है, भावार्थ करके नीचे मूल को समझाया है। कभी-कभी मुझे लगा है कि मैंने अनुवाद तो कर दिया है, किन्तु यदि यह नाटक खेला जाएगा तो उस समय फुटनोट के अभाव में भारतीय दर्शक इसे कैसे समझ सकेगा ? किन्तु ऐसे स्थल बहुत थोड़े हैं और यदि अभिनय के समय हटा दिए जाएँ तो हानि नहीं होगी, क्योंकि उन उक्तिचातुर्य-प्रदर्शन के भागों में कथात्मकता नहीं है। उक्तिचातुर्य में कवि ने अश्लीलता को भी नहीं छोड़ा है। जहाँ तक बन सका है मैंने उसे बुझा देने की ही चेष्टा की है। शेक्सपियर का वास्तविक परिचय पाने के लिए अन्य नाटकों के साथ इस रचना का भी अध्ययन करना साहित्य के विद्यार्थी के लिए अत्यन्त ही आवश्यक है।